सौरभ त्रिपाठी (Saurabh Tripathi) :- आज युवाओं के मस्तिष्क में सिर्फ़ तार्किकता है ,संवेदनशीलता नही ।परिणाम स्वरूप हर व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए जीना चाहती है ।और संसार की सारी सुविधाओं को किसी भी शर्त पर पाने को बेचैन रहती है । (Mindset)
भय व लालच में युवाओं की मनोवृत्ति मानो मौसम से भी तीव्र बदलते हुए विध्वसंता की तरफ़ अग्रसर हो रही है ।जिन युवाओं से पारिवारिक सम्बंध नही निभाए जा रहे है उनसे राष्ट्रहित में सहयोग की कल्पना करना “गंगा में जौ बोने के समान है ”।
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एक समय में शैक्षिक पाठ्यक्रम में “ईदगाह” का हामिद आदर्श होता था ,राम-कृष्ण ,कबीर-रहीम ,सूर-तुलसी के संगीतमय साहित्य ,पंचतंत्र ,प्रेमचंद्र की कहानियाँ आदि होती थी जो की मानव मस्तिष्क में संवेदना प्रकट करती थी ।परंतु वर्तमान में आज ये नदारद है ।
परंतु आज का ऐसा वातावरण देख कर खुद शर्मिंदगी महसूस होती है ।बचपन तार्किकता का ग़ुलाम बनकर स्वार्थ में खो गया है ।झूठी पहचान व प्रसंशा के लिए युवा आज दिवाने बने फिर रहे है ।अर्थ और काम के प्रति भारतीय युवाओं के नज़रिए में जो परिवर्तन दिखायी पड़ रहा है उसे राष्ट्रहित के लिए शुभ कभी नही कहा जा सकता । (Mindset)
जीवन के प्रति यह नया दर्शन बाज़ारवादी शक्तियों के प्रयासों का परिणाम है ।अब हम युवाओं में वो हामिद के तरह बूढ़ी दादी के प्रति कोई संवेदना नही बची ।स्कूल ,कॉलेज जो शिक्षा के मंदिर थे आज वहाँ शिक्षा के अतिरिक्त सब कुछ देखने को मिलता है ।
धर्म की ABCD भी ना जानने वाले आज हम युवा पीढ़ी गंदी राजनीति के झाँसे में आकर ज्ञान अलापते नज़र आ रहे है मानो युवा पीढ़ी ग्रसित हो रही है गंदे वायरल रोग से जो की कोरोना महामारी से ज़्यादा भयंकर साबित हो सकता है ।हम युवाओं का दायित्व बोध मर चुका है ।
कहावत है ना “दूसरों के कंधे पे बंदूक़ रखकर चलाना” शिक्षित होने के बावजूद भी हम युवा पीढ़ी अन्य किसी द्वारा बंदूक़ चलाने हेतु कंधा बन रहे है । जिसके वजह से ना तो रोज़गार है और ना ही सम्मान पूर्ण जीवन अवसर और इसी का लाभ आज चालाक कार्पोरेटिव सोसाइटी उठा रही है ।
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बाज़ारवाद जिस बेचैनी के साथ मानव स्वभाव को प्रभावित कर रहा है उसे मानसिक ग़ुलाम तैयार करने का प्रयास मानता हूँ । विकास ,परिवर्तन ,आधुनिकता ,वैज्ञानिकता के नाम पर यह सारा खेल एक प्रकार की ग़ुलामी का आहट है ।ठीक वैसे ही हम ग़ुलाम बनायें जा रहे है जैसे इतिहास में हम कभी उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद या संप्रभुतावाद के ग़ुलाम बने थे ।नस्ल सुधार कार्यक्रमों ने पशुओं की नस्ल ही खतम कर दी । अधिक उत्पादन के लालच ने मूल फ़सलो को जैसे बर्बाद किया वैसे ही अब मानव प्रजाति के ऊपर सुनियोजित प्रयोग होने दिया जा रहा है और आश्चर्य है की विभिन्न सरकारें भी इस नवयुग प्रयासों को अपनी उपलब्धियाँ मान बैठी है । (Mindset)