भाजपा का विरोध अब राष्ट्रीय स्तर पर कर रहे वामदलों का (Vamdal) कांग्रेस के साथ अजीब रिश्ता बनता जा रहा है। कभी कांग्रेस के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं तो कहीं प्रचंड विरोध में खड़े हैं। दो वर्ष पहले बंगाल में कांग्रेस के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ चुके वामदलों ने इस बार फिर से दल-बदल का फैसला ले लिया है। राहुल गाँधी द्वारा पुरे देश में किए जा रहे भारत जोड़ो यात्रा में विपक्षी दलों के शामिल होने के लिए कांग्रेस द्वारा आग्रह पर वामदलों ने आपत्ति जताई है।
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भाजपा का विरोध के साथ समर्थन का सिलसिला जारी
बिहार में कांग्रेस के साथ वाली महागठबंधन सरकार को बाहर से सहारा और समर्थन देने वाले वामदलों को सर्वाधिक आपत्ति केरल को लेकर है, जहां राहुल गांधी ने 18 दिन तक वाम सरकार के खिलाफ पदयात्रा की है। त्रिपुरा में भी पुरानी दुश्मनी को नजरअंदाज कर भाजपा सरकार के खिलाफ विपक्ष के अभियान में माकपा ने कांग्रेस का साथ मांगा है। स्पष्ट है कि दोनों ध्रुवों के बीच विरोध और समर्थन का सिलसिला आगे भी जारी रह सकता है।
भुगतना पड़ा वामपंथियों को अपनी गलती का खामियाजा
वामपंथी पहले बंगाल में कांग्रेस से लगातार लड़ते रहे, लेकिन 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देकर तृणमूल कांग्रेस के प्रयासों को मौका दे दिया। (Vamdal) वामदलों ने अपने आधार वाले बंगाल में ही दूसरी गलती 2020 में तब की, जब विधानसभा चुनाव में उसी कांग्रेस का हाथ थाम लिया, जिसने कभी इन्हें पनपने से रोकने का प्रयास किया था। नतीजा हुआ कि वामदलों के हाथ से बंगाल काफी दूर चला गया।
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विचारधारा स्थायी न होने का उठाना पड़ रहा नुकसान
राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी का स्थायी विभाजन नहीं होता, फिर भी विचारधारा से दलों की पहचान होती है। आजादी के बाद 34 वर्षों तक बंगाल पर एकक्षत्र राज करने वाले वामदलों की विचारधारा कभी स्थायी नहीं रही, जिसका नुकसान भी उन्हें उठाना पड़ा है।
स्वयं वामपंथियों ने बनाया संदिग्ध
कभी बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वामपंथ का प्रभुत्व था। (Vamdal) बिहार में भी लालू प्रसाद के राजनीतिक अवतरण के पहले तक ऐसा लग रहा था कि आने वाला समय वामपंथी विचारों का ही होगा, लेकिन अपनी जमीन और विचारधारा पर खड़े और अड़े नहीं रहकर वामपंथियों ने स्वयं को ही काफी हद तक संदिग्ध बना लिया।