नई दिल्ली। राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव के दौरान की जाने वाली मुफ्त घोषणाएं (Freebies) सही या गलत? इस सवाल पर विभिन्न पार्टियों का मत अलग-अलग है। ये मामला सुप्रीम कोर्ट में है। आज कोर्ट में मुफ्त घोषणाओं के विरुद्ध दायर याचिका पर अगली सुनवाई होगी। पिछली सुनवाई में शीर्ष अदालत ने इसे गंभीर समस्या मानते हुए सरकार से एक समिति गठित करने का सुझाव दिया था। इस समिति में रिजर्व बैंक, नीति आयोग और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को शामिल करने की बात है।
पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम राजनीतिक पार्टियों की घोषणाओं पर रोक नहीं लगा सकते हैं, लेकिन कल्याणकारी योजनाओं और चुनावी रेवड़ियों के बीच अंतर करना जरूरी है। कोर्ट ने चुनाव आयोग और राज्य सरकारों से जवाब दाखिल करने का आदेश दिया है।
मुफ्त घोषणाओं का मुद्दा राजनीतिक रूप से प्रासंगिक होता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे रेवड़ी संस्कृति करार देते हुए इसका लगातार विरोध कर रहे हैं जबकि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसका समर्थन कर रहे हैं। उनके समर्थन में अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन भी उतर गए हैं।
दरअसल, कोर्ट ने साफ कर दिया है कि राजनीतिक दल या व्यक्ति को सत्ता में आने पर संवैधानिक जनादेश पूरा करने के उद्देश्य से किया गया वादा करने से रोका नहीं जा सकता है। अब इस सवाल का जवाब ढूंढना है कि वास्तव में वैध वादा क्या है? क्या हम छोटे और सीमांत किसानों को बिजली, बीजों और उर्वरकों पर सब्सिडी के वादे को मुफ्त की रेवडि़यां कह सकते हैं?