छत्तीसगढ़ का खनिज संपदा से समृद्ध सरगुजा क्षेत्र जो हसदेव अरण्य के बाहर स्थित है, पिछले कुछ समय से राजनीति के कारण अनावश्यक ही विवादों का केंद्र रहा है। एक तरफ तो, राहुल गांधी जैसे नेता कहते हैं कि बड़े व्यावसायिक संस्थान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) समुदायों के लोगों को अपने संस्थानों में रोजगार नहीं करने देते और ये सब कह कर खुद को उनका हितैषी बताते हैं, वहीं दूसरी तरफ वे हसदेव अरण्य क्षेत्र के बाहर सरगुजा में चल रही एकमात्र पी ई के बी खदान जिसमें इस क्षेत्र के आदिवासी (Tribals) समुदाय के 5000 से ज्यादा लोग कार्यरत हैं, का विरोध करके वहाँ के आदिवासियों से उनका रोजगार और विकास का हक छीनने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि यह एकमात्र खदान रोजगार और विकास के लिए इस क्षेत्र में अत्यंत आवश्यक हैं।
*राहुल गांधी का विरोध*
राहुल गांधी का कहना है कि बड़ी कंपनियां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) समुदायों को नौकरी नहीं दे रही हैं। वे इन समुदायों के विकास का समर्थन करते हैं, लेकिन हसदेव क्षेत्र से बाहर स्थित क्षेत्र में खनन का विरोध करते हैं। खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ का यह क्षेत्र, लगातार अनावश्यक ही राजनीतिक विवादों में उलझाया जा रहा है। एक ओर, राहुल गांधी जैसे नेता पर्यावरण और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के नाम पर खनन का विरोध कर रहे हैं। दूसरी ओर, आंकड़ें कुछ और ही कहानी बयां करती हैं। क्या सचमुच पी ई के बी खदान आदिवासियों के विकास को छीन रही है, या फिर ये राजनीतिक दांव-पेंच का शिकार हो रहा है? आइए, इस पेचीदा मुद्दे की तह तक जाएं।
*हसदेव बचाओ आंदोलन*
हसदेव बचाओ आंदोलन, जो खनन का विरोध कर रहा है, का नेतृत्व आलोक शुक्ला कर रहे हैं। शुक्ला ब्राह्मण वर्ग से आते हैं, और कुछ लोगों ने उन पर ब्राह्मणवाद का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि सवर्ण लोग हसदेव के नाम पर आदिवासियों से उनका आगे बढ़ने का हक, रोजगार और शिक्षा का हक छीन रहे हैं। (Tribals)
*खनिज संपदा के दोहन का विरोध या राजनीतिक लाभ?*
एनजीओ का कहना है कि खनन से आदिवासियों का विस्थापन होगा और उनकी आजीविका छिन्न-भिन्न हो जाएगी। लेकिन हकीकत इससे अलग है। यहाँ विस्थापन अब इतिहास बन गया है लोगों को इस आदिवासी बहुल इलाके में ही रोजगार मिल रहा है। अगर पर्यावरण संरक्षण की बात की जाए तो पिछले 10 वर्षों में हसदेव खदान में 11.50 पेड़, 90% सफलता दर के साथ पेड़ लगाए गए हैं और पिछले एक साल में ही 2.10 लाख पेड़ों को लगे गया है, इतना ही नहीं, राजस्थान के RVUNL ने छत्तीसगढ़ के वन विभाग के साथ मिलकर 40 लाख पेड़ लगाए हैं, जिसका खर्च पूरी तरह से RVUNL ने वहन किया है। विकास के साथ जैव विविधता को पुनर्स्थापित करने के सफल प्रयास भी लगातार जारी हैं और इसमें महत्वपूर्ण सफलता भी मिल रही है। ऐसे में जब पर्यावरणीय उपायों का इतना व्यापक अनुसरण हो रहा है, तो इस विरोध का क्या औचित्य है?
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*आदिवासीयों के विकास का सच*
खनन का विरोध करने वाले अक्सर दावा करते हैं कि इससे आदिवासियों के विकास के अवसर छीन लिए जाएंगे। लेकिन आंकड़ें फिर से अलग कहानी कहती हैं। हसदेव खदान क्षेत्र में स्कूल, अस्पताल, सड़क और अन्य बुनियादी सुविधाओं के विकास में तेजी आई है। खदान के निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत आदिवासी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा व्यापक कार्य हो रहे हैं, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के क्षेत्र में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। इसके अलावा, खदान में ही स्थानीय आदिवासियों (Tribals) को रोजगार के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं। पिछले वर्षों में छत्तीसगढ़ राज्य को खदान से लगभग 7000 करोड़ राजस्व की प्राप्ति हुई है जो सीधे तौर पर जन कल्याण के कार्यों उपयोग होता है।
*राजनीतिक दोगलापन का शिकार?*
तो फिर सवाल उठता है कि जब पर्यावरणीय उपायों का पालन किया जा रहा है और आदिवासी विकास को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, तो इतना विरोध क्यों? कई लोगों का मानना है कि यह पूरा मामला राजनीतिक दांव-पेंच से ज्यादा कुछ नहीं है। विपक्षी दल अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए पर्यावरण और आदिवासी विकास जैसे संवेदनशील मुद्दों का सहारा ले रहे हैं। विकास, खनन संपदा दोहन से लाभ और पर्यावरण संबंधित आंकड़ों को जन जन तक पहुचाएं
हसदेव के पास स्थित क्षेत्र में खनन का मुद्दा विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती को उजागर करता है, लेकिन यह भी सच है कि पर्यावरणीय उपायों को प्राथमिकता दी जा रही है। साथ ही, खदान से आदिवासी (Tribals) समुदायों को भी सम्पूर्ण लाभ मिल रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक स्वार्थों को दूर रखकर, सच और झूठ को पहचान कर विकास और पर्यावरण के उपायों के जो प्रयास किए जा रहे हैं उनको जन जन तक पहुँचा कर सही तथ्यों को उजागर करके ही आदिवासियों को मिल रहे अधिकारों का सम्मान किया जा सकता है।